कोरोना: श्मशानघाट से उचक उचककर मीडिया कवरेज धिक्कार है
गोपाल वाजपई, वरिष्ठ पत्रकार
पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को डस्टबिन में फेंककर कवरेज किया जा रहा है और ऐसी खबरों को एक्सक्लूसिव बताकर भाई लोग सीना फुला रहे हैं । धिक्कारता हूं मैं ऐसी बेहयाई पत्रकारिता को । शमशान घाटों पर जाकर जलती चिताओं पर टीवी पर लाइव किया जा रहा है। अखबारों में जलती चिताओं के बिग फोटो के साथ डरावने कैप्शन लिखे जा रहे हैं। और रही सही कसर ऐसे पत्रकार साथी शमशान घाट से फेसबुक लाइव कर रहे हैं, टीवी पर चली ऐसी खबरों को प्रकाशित फ़ोटो को शेयर कर रहे हैं। मौत के आंकड़ों को मनगढ़ंत तरीके से पेश कर रहे हैं। क्या यही है पत्रकारिता, लोगों में दहशत फैलाकर क्या साबित करना चाहते हैं, क्या सूचना देने का यह तरीका वाहियात किस्म का नहीं है। पत्रकार का काम है सूचना देना, विसंगतियों को उजागर करना, सही तथ्यों को पेश करना, गलत व अनैतिक कार्यों का पर्दाफाश करना, समाज को शिक्षित व जागरूक उलकरना, जरूरतमंदों की मदद करना आदि। इस सबसे इतर समाज में दहशत पैदा करने के सारे दांव पेंच आजमाए जा रहे हैं।
श्मशान घाटमें जाकर उचक उचककर रिपोर्टिंग करने वाले यह काम अस्पतालों में जाकर बेहाल मरीजों की व्यथा नहीं दिखाते , अस्पतालों की व्ययस्था दुरुस्त करने के लिए स्टोरी क्यों नहीं दिखाते, जनप्रतिनिधियों को क्यों नहीं घेरते। अगर नेताओं को घेरते भी हैं तो उनकी चरणवंदना के लिए। फील्ड में जाकर ऐसी स्टोरी करने के बाद स्टोरी फ़ाइल करने के दौरान संपादक उनकी क्लास क्यों नहीं लगाते। महामारी की भयावहता खतरनाक तरीके पेश कर समाज में दहशत बढ़ाने का टारगेट कहीं सुनियोजित तरीके से कहीं से प्लांट तो नहीं किया जा रहा है। सोचो भाइयों सोचों । ये घृणित कार्य आप कहीं अज्ञानवश या मजबूरी में तो नहीं कर रहे।
Source: लेखक, वरिष्ठ पत्रकर है, उनकी फेसबुक से
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